क्या छोटे कस्बों और शहरों में ही पत्रकारिता बची है!

“छोटे कस्बों और शहरों में ही पत्रकारिता बची है” बड़े महानगरों में जहां पत्रकारिता अक्सर कॉरपोरेट हितों, बाजारवाद और सनसनीखेज खबरों के दबाव में बदल गई है, वहीं छोटे कस्बों और शहरों में यह अभी भी अपनी मूल भावना—यानी समाज की वास्तविक समस्याओं, स्थानीय मुद्दों और जनता की आवाज को सामने लाने के करीब है।

छोटे स्थानों पर पत्रकारिता शायद इसलिए जीवित मानी जा सकती है क्योंकि वहां के पत्रकार स्थानीय लोगों के जीवन, उनकी चुनौतियों और उनकी कहानियों से सीधे जुड़े होते हैं। वहां संसाधन भले कम हों, लेकिन खबरों में प्रामाणिकता और जमीनी हकीकत का पुट अधिक होता है। इसके विपरीत, बड़े शहरों में पत्रकारिता कभी-कभी रेटिंग, विज्ञापन और राजनीतिक दबावों के आगे अपनी स्वतंत्रता खो देती है।
“छोटे कस्बों और शहरों में ही पत्रकारिता बची है” एक विचारणीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसका आशय यह हो सकता है कि बड़े महानगरों में जहां पत्रकारिता अक्सर कॉरपोरेट हितों, बाजारवाद और सनसनीखेज खबरों के दबाव में बदल गई है, वहीं छोटे कस्बों और शहरों में यह अभी भी अपनी मूल भावना—यानी समाज की वास्तविक समस्याओं, स्थानीय मुद्दों और जनता की आवाज को सामने लाने—के करीब है।

छोटे स्थानों पर पत्रकारिता शायद इसलिए जीवित मानी जा सकती है क्योंकि वहां के पत्रकार स्थानीय लोगों के जीवन, उनकी चुनौतियों और उनकी कहानियों से सीधे जुड़े होते हैं। वहां संसाधन भले कम हों, लेकिन खबरों में प्रामाणिकता और जमीनी हकीकत का पुट अधिक होता है। इसके विपरीत, बड़े शहरों में पत्रकारिता कभी-कभी रेटिंग, विज्ञापन और राजनीतिक दबावों के आगे अपनी स्वतंत्रता खो देती है।

हालांकि, यह भी सच है कि छोटे कस्बों में पत्रकारिता के सामने अपनी चुनौतियां हैं—जैसे आर्थिक तंगी, सीमित पहुंच, और तकनीकी संसाधनों की कमी। फिर भी, अनिल तिवारी का यह कथन शायद इस ओर इशारा करता है कि पत्रकारिता का असली सार, जो लोगों के बीच संवाद और सच्चाई को जीवित रखता है, छोटे स्थानों पर अभी भी कायम है। क्या आपके पास इस कथन को लेकर कोई खास संदर्भ या विचार है जिस पर चर्चा करना चाहेंगे?
पत्रकारिता की साख का सवाल आज के समय में बेहद प्रासंगिक है, क्योंकि इसके सामने विश्वसनीयता का संकट गहराता जा रहा है। क्या इसकी साख बची है? इसका जवाब हां और ना दोनों में छिपा है, जो संदर्भ और स्तर पर निर्भर करता है।

क्यों गिरी साख?

  1. सनसनीखेज रिपोर्टिंग:
    टीआरपी और क्लिकबेट की दौड़ में खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर या अधूरी जानकारी के साथ पेश करना आम हो गया है। इससे लोगों का भरोसा टूटा है।
  2. पेड न्यूज और पक्षपात:
    प्रायोजित खबरें और राजनीतिक/कॉरपोरेट एजेंडा चलाने के आरोपों ने पत्रकारिता को “बिकाऊ” होने का ठप्पा लगा दिया है।
  3. फर्जी खबरों का प्रसार:
    सोशल मीडिया पर बिना जांचे-परखे खबरें फैलाना और फिर उसे मुख्यधारा में शामिल करना विश्वसनीयता को कम करता है।
  4. नैतिकता का ह्रास:
    निजी हमले, गोपनीयता का उल्लंघन और संवेदनशीलता की कमी ने लोगों में नाराजगी पैदा की है।
  5. जनता से दूरी:
    बड़े स्तर पर पत्रकारिता जनता के मुद्दों से कटती नजर आई है, जो सत्ता या बाजार के इर्द-गिर्द सिमट गई है।

कहां बची है साख?

  1. स्थानीय और स्वतंत्र पत्रकारिता:
    छोटे कस्बों और शहरों में, जहां पत्रकार स्थानीय समस्याओं को उठाते हैं, वहां अभी भी लोग उन पर भरोसा करते हैं। ये पत्रकार जमीनी हकीकत से जुड़े होते हैं।
  2. खोजी पत्रकारिता:
    कुछ समर्पित पत्रकार और संस्थान भ्रष्टाचार, घोटालों और अन्याय को उजागर कर रहे हैं, जैसे कोबरापोस्ट या वायर जैसी पहल। इनके काम से साख बरकरार है।
  3. नागरिक पत्रकारिता:
    आम लोग सोशल मीडिया के जरिए सच्चाई सामने ला रहे हैं, जो मुख्यधारा की कमियों को पूरा करती है।
  4. वैश्विक उदाहरण:
    जहां बड़े घोटाले उजागर हुए—जैसे पनामा पेपर्स—वहां पत्रकारिता की ताकत और साख दोनों दिखी।

क्या बचाया जा सकता है?

पत्रकारिता की साख को बचाने के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिकता पर जोर देना होगा। जनता के साथ दोबारा जुड़ाव, तथ्यों की जांच पर ध्यान और बाजार के दबाव से मुक्ति जरूरी है। छोटे स्तर पर यह साख अभी भी जिंदा है, क्योंकि वहां का पत्रकार लोगों के बीच से ही निकलता है। लेकिन बड़े स्तर पर इसे पुनर्जनन की जरूरत है।पत्रकारिता की साख का सवाल आज के समय में बेहद प्रासंगिक है, क्योंकि इसके सामने विश्वसनीयता का संकट गहराता जा रहा है। क्या इसकी साख बची है? इसका जवाब हां और ना दोनों में छिपा है, जो संदर्भ और स्तर पर निर्भर करता है।

क्या बचाया जा सकता है?

पत्रकारिता की साख को बचाने के लिए पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिकता पर जोर देना होगा। जनता के साथ दोबारा जुड़ाव, तथ्यों की जांच पर ध्यान और बाजार के दबाव से मुक्ति जरूरी है। छोटे स्तर पर यह साख अभी भी जिंदा है, क्योंकि वहां का पत्रकार लोगों के बीच से ही निकलता है। लेकिन बड़े स्तर पर इसे पुनर्जनन की जरूरत है।
पत्रकारिता की साख का सवाल आज के समय में बेहद प्रासंगिक है, क्योंकि इसके सामने विश्वसनीयता का संकट गहराता जा रहा है। क्या इसकी साख बची है? इसका जवाब हां और ना दोनों में छिपा है, जो संदर्भ और स्तर पर निर्भर करता है।

हां, साख वापस पाई जा सकती है:

  1. नैतिकता और पारदर्शिता:
    अगर पत्रकार और संस्थान अपनी रिपोर्टिंग में तथ्यों की जांच, निष्पक्षता और जवाबदेही को प्राथमिकता दें, तो लोगों का भरोसा लौट सकता है। गलतियों को स्वीकार कर सुधार करना भी इसमें मददगार होगा।
  2. जनता से जुड़ाव:
    पत्रकारिता को फिर से लोगों की आवाज बनना होगा। स्थानीय मुद्दों, जमीनी कहानियों और आम आदमी की चिंताओं को केंद्र में लाकर यह दूरी खत्म की जा सकती है।
  3. तकनीक का सही इस्तेमाल:
    डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग फर्जी खबरों से लड़ने, तथ्यों को तेजी से सत्यापित करने और पारदर्शी संवाद के लिए किया जा सकता है।
  4. स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा:
    कॉरपोरेट और राजनीतिक दबाव से मुक्त स्वतंत्र मीडिया संस्थानों और व्यक्तिगत पत्रकारों को समर्थन मिले, तो साख मजबूत होगी।
  5. शिक्षा और जागरूकता:
    जनता को मीडिया साक्षरता सिखाना—कि वे खबरों को आलोचनात्मक ढंग से देखें—भी पत्रकारिता को बेहतर करने के लिए प्रेरित करेगा।

नहीं, गिरावट अपरिवर्तनीय हो सकती है:

  1. संस्थागत भ्रष्टाचार:
    अगर बड़े मीडिया घरानों का कॉरपोरेट और सत्ता के साथ गठजोड़ बना रहता है, तो सुधार मुश्किल होगा। यह विश्वास का स्थायी नुकसान कर सकता है।
  2. बाजार का दबाव:
    टीआरपी और विज्ञापन पर निर्भरता के चलते सनसनीखेज खबरों की मजबूरी खत्म नहीं होगी, जो साख को और कमजोर करेगी।
  3. सोशल मीडिया का प्रभाव:
    जब लोग सोशल मीडिया से तुरंत जानकारी लेने के आदी हो गए हैं, तो पारंपरिक पत्रकारिता की प्रासंगिकता और उस पर भरोसा कम हो सकता है।
  4. नैतिक पतन:
    अगर पत्रकारिता में नैतिकता को लेकर गंभीरता नहीं लौटती, तो यह पेशा केवल प्रचार तंत्र बनकर रह जाएगा।

दबाव से मुक्ति जरूरी है। छोटे स्तर पर यह साख अभी भी जिंदा है, क्योंकि वहां का पत्रकार लोगों के बीच से ही निकलता है। लेकिन बड़े स्तर पर इसे पुनर्जनन की जरूरत है।

सुरेंद्र कुमार
मुंबई

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